एस.के. सिंह, नई दिल्ली। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसी) के तहत भारत ने वर्ष 2030 तक उत्सर्जन का स्तर 2005 की तुलना में 45% कम करने और 50% बिजली उत्पादन गैर-जीवाश्म ईंधन से करने का लक्ष्य रखा है। काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) के अनुसार भारत में 49% ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बिजली उत्पादन और ट्रांसपोर्ट सेक्टर से होता है, जिसे एनर्जी स्टोरेज टेक्नोलॉजी से कम किया जा सकता है। एनर्जी स्टोरेज का मतलब है बैटरी, और अंतरराष्ट्रीय एनर्जी एजेंसी (आईईए) का आकलन है कि 2030 तक लिथियम आयन बैटरी की ही मांग अधिक रहेगी। भारत में इसका सप्लाई चेन इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं के बराबर है इसलिए हम आयात पर निर्भर हैं।

आयात पर निर्भरता कम करने के लिए भारत ने हाल में प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव (पीएलआई) समेत कई कदम उठाए हैं। यहां नई टेक्नोलॉजी पर भी काम हो रहा है, हालांकि वे अभी शुरुआती चरण में हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि चुनौती टेक्नोलॉजी को लैबोरेट्री से निकाल कर कॉमर्शियलाइज करने की है। हमें इस प्रक्रिया को आसान बनाने की जरूरत है। ऐसी बैटरी पर भी काम चल रहा है जिन्हें 20 से 30 हजार बार तक रिचार्ज किया जा सकेगा। बैटरी लाइफ बढ़ने पर अहम खनिजों की जरूरत भी कम पड़ेगी।

भारत में बैटरी की डिमांड

भारत समेत पूरी दुनिया में इस समय ट्रांसपोर्ट और बिजली उत्पादन में उत्सर्जन कम करने के प्रयास हो रहे हैं। एसएंडपी ग्लोबल मोबिलिटी में सप्लाई चेन मामलों की सीनियर रिसर्च एनालिस्ट दीया दास ने जागरण प्राइम से कहा, “हमारा अनुमान है कि कम से कम 2030 तक ऑटोमोबाइल सेक्टर के लिए बैटरी की डिमांड एनर्जी स्टोरेज सिस्टम की तुलना में बहुत कम होगी।”

सीईईडब्ल्यू के अनुसार, वर्ष 2030 तक देश में 903 गीगावाट आवर बैटरी की डिमांड होगी। इसमें 576 गीगावाट आवर ईवी के लिए और बाकी 327 गीगावाट स्टोरेज के लिए होगी। बैटरी में कैथोड मैटेरियल सबसे महत्वपूर्ण होता है। इसे बनाने में लगने वाले मिनरल्स के दाम काफी ऊपर-नीचे होते रहते हैं। इसलिए आगे भी बैटरी की कीमत इस बात पर निर्भर करेगी कि उसमें कौन सी केमिस्ट्री (यानी मिनरल्स) का इस्तेमाल हुआ है। लिथियम आयन बैटरी में इस्तेमाल होने वाले कई मिनरल भारत में नहीं मिलते। इसलिए भारत वैल्यू चेन के 60% तक आयात पर निर्भर है। 903 गीगावाट आवर बैटरी बनाने के लिए 2022 से 2030 तक 969 से 1452 किलो टन तक कैथोड मैटेरियल, ग्रेफाइट और इलेक्ट्रोलाइट की जरूरत पड़ेगी।

पूरी सप्लाई चेन बनाने में कई साल लगेंगे

भारत में बैटरी सप्लाई चेन विकसित करने में क्या अड़चनें हैं, इस सवाल पर सीईईडब्ल्यू के सीनियर प्रोग्राम लीड ऋषभ जैन कहते हैं, खनिज की खोज होने के बाद वहां उत्पादन शुरू होने में पांच से 10 साल लग जाते हैं। यूनिट लगाने में भी दो-तीन साल लगते हैं। चीन में परमिट जल्दी मिलने के कारण वहां यूनिट जल्दी लग जाती है। आईईए के अनुसार, अमेरिका या यूरोप में चीन का दोगुना वक्त लगता है। यह समय भी तब लगता है, जब आपके पास टेक्नोलॉजी मौजूद हो। अगर टेक्नोलॉजी नहीं है तो और ज्यादा समय लगेगा। भारत में अभी लिथियम का भंडार (कश्मीर में) मिला है, हमें पहले उसे प्रोसेस करने की टेक्नोलॉजी डेवलप करनी पड़ेगी। टेक्नोलॉजी ट्रांसफर का भी एक रास्ता है। स्टैंडर्ड समय देखें तो सोलर मॉड्यूल प्लांट लगाने में 12 महीने और सेल प्लांट में 12 से 18 महीने लगते हैं।

दीया दास कहती हैं, लिथियम की ज्यादातर सप्लाई ऑस्ट्रेलिया, चिली, चीन और अर्जेंटीना से होती है। कांगो कोबाल्ट का सबसे बड़ा सप्लायर है तथा निकल इंडोनेशिया और ऑस्ट्रेलिया से आता है। एनर्जी ट्रांजिशन के लिए पर्याप्त मैटेरियल उपलब्ध है।

वे कहती हैं, “असल समस्या टाइमिंग की है। इस समय लिथियम, कोबाल्ट और निकल तीनों अहम मैटेरियल सरप्लस हैं और इनके दाम घट रहे हैं। लेकिन मध्यम अवधि में यह ट्रेंड बदलेगा, क्योंकि लिथियम की बड़ी किल्लत हो सकती है। ऐसी परिस्थितियों में एक दुष्चक्र बनता है। दाम कम होने पर कंपनियां नए प्रोजेक्ट धीमा कर देती हैं। लेकिन अगले 7 से 10 वर्षों में इनकी डिमांड बहुत ज्यादा होगी और उसके लिए अभी निवेश करना पड़ेगा। अमेरिका में इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट और क्रिटिकल रॉ मैटेरियल्स एक्ट जैसे कदम इस दुष्चक्र को तोड़ सकते हैं।”

फिलहाल आयात पर है निर्भरता

लिथियम आयन बैटरी के लिए एक्टिव कैथोड मैटेरियल सिंथेसिस में लिथियम, निकल, कोबाल्ट और मैंगनीज का इस्तेमाल होता है। नीति आयोग के अनुसार दुनिया का 59% लिथियम रिजर्व 10 खदानों में और 75% रिजर्व 20 बड़े खदानों में है। ओडिशा, झारखंड और नगालैंड में 18.9 करोड़ टन निकल और 4.5 करोड़ टन कोबाल्ट का भंडार मिला है, लेकिन अभी रिफाइनिंग क्षमता नहीं होने के कारण इनके लिए आयात पर निर्भर हैं। बैटरी में इस्तेमाल होने वाले स्फेरिकल ग्रेफाइट का भी आयात होता है। एटॉमिक मिनरल्स डायरेक्टरेट फॉर एक्सप्लोरेशन एंड रिसर्च (एएमडी) ने कर्नाटक के मांड्या जिले में 1,600 टन और जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने जम्मू-कश्मीर में 59 लाख टन लिथियम की खोज की है।

भारत में लिथियम का आयात हर साल बढ़ रहा है। वर्ष 2019-20 में भारत ने 8,966 करोड़, 2020-21 में 8,984 करोड़ और 2021-22 में 13,838 करोड़ रुपये के लिथियम का आयात किया था। वर्ष 2020-21 में 69% लिथियम आयात चीन और हांगकांग से हुआ। लिथियम प्रोसेसिंग और रिफाइनिंग में सोडा ऐश, कास्टिक सोडा और कैल्शियम कार्बोनेट का प्रयोग होता है। इनका भी आयात होता है। वर्ष 2020-21 में 77.76 लाख टन सोडा ऐश, कास्टिक सोडा और लिक्विड क्लोरीन का देश में उत्पादन हुआ और 9.67 लाख टन का आयात किया गया।

ऋषभ जैन बताते हैं, लिथियम का आयात मिनरल के रूप में नहीं होता क्योंकि भारत में मिनरल प्रोसेसिंग का अगला चरण सीमित है। कैथोड और इलेक्ट्रोलाइट बनाने वाली कंपनियां लिथियम कार्बोनेट या लिथियम हाइड्रॉक्साइड का आयात करती हैं। अभी भारत में बैटरी सेल नहीं बनते हैं। दो स्टार्टअप ने इस दिशा में काम शुरू किया है लेकिन वे अभी छोटे स्तर पर हैं। फिलहाल सभी बैटरी सेल आयात होते हैं, यहां सिर्फ असेंबलिंग होती है। बैटरी सेल मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए सरकार पीआईएल (18,100 करोड़ रुपये) लेकर आई है। इसमें तीन कंपनियों ने बोली जीती है।

जैन के अनुसार, एनएमसी बैटरियों की बात करें तो भारत में निकेल और कोबाल्ट नहीं है। भारत में खपत होने वाले अधिकांश मैंगनीज का घरेलू स्तर पर उत्पादन होता है। हालांकि यह क्रिटिकल मिनिरल्स में शामिल नहीं है। एलएफपी बैटरियों में आयरन फॉस्फेट को कैथोड मटेरियल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। भारत में खपत के 20% फास्फोरस का खनन होता है, बाकी आयात होता है। भारत में लिथियम का भंडार मिला है और निकल के एक ब्लॉक के साथ उसके ब्लॉक की नीलामी की जा रही है। हालांकि, इसकी प्रोसेसिंग इंडस्ट्री तैयार होने में कई साल लगेंगे।

आयात पर निर्भरता कम करने के लिए भारत को भी बड़ा निवेश करना पड़ेगा। नीति आयोग ने 2030 के एक्शन प्लान में देश में महत्वपूर्ण खनिजों की खोज, खनन और प्रोसेसिंग-रिफाइनिंग के लिए इन्सेंटिव देने, देश के बाहर खनिजों की खोज और खनन के लिए भारतीय मिशन को खनिज बहुल देशों में भारतीय कंपनियों के निवेश की संभावनाएं देखने और रिसाइक्लिंग क्षमता विकसित करने जैसे सुझाव दिए हैं। इसका एक सुझाव पृथ्वी पर प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले खनिजों के इस्तेमाल के लिए आरएंडडी का भी है। केंद्रीय ऊर्जा मंत्री आर.के. सिंह ने भी पिछले दिनों कहा कि सप्लाई चेन की समस्या को देखते हुए हमें लिथियम को छोड़ सोडियम आयन जैसी दूसरी केमिस्ट्री अपनाने की जरूरत है।

ईवी बैटरी की नई टेक्नोलॉजी

दीया दास कहती हैं, सप्लाई चेन की दिक्कतें दूर करने के लिए नई टेक्नोलॉजी आ रही हैं। जैसे सोडियम आयन बैटरी जिसमें लिथियम की जरूरत नहीं पड़ती, या आयरन आधारित कैथोड जिसमें निकल और कोबाल्ट नहीं लगता। दुनिया में लिथियम से ज्यादा सोडियम उपलब्ध है और यह लगभग हर जगह मिलता है। इसलिए सोडियम आयन बैटरी, लिथियम आयन बैटरी से सस्ती होंगी। चार्जिंग/डिस्चार्जिंग के साथ तापमान के बड़े रेंज में ये सुरक्षित मानी भी जाती हैं। इनकी एनर्जी डेंसिटी थोड़ी कम होती है, इसलिए एंट्री लेवल और शहर के भीतर चलने वाली माइक्रो-सेगमेंट कारों के लिए ये मुफीद हैं।

वे बताती हैं, कम कोबाल्ट वाली निकल केमिस्ट्री बैटरी (जैसे एनसीएम 811) की एनर्जी डेंसिटी अधिक होती है और ज्यादा पावर की मांग वाली गाड़ियों में इनका इस्तेमाल होता है। हालांकि ज्यादा निकल वाली बैटरी कम स्थिर होती है। हाल के वर्षों में सॉलिड स्टेट बैटरी, सिलिकॉन-एनोड, सोडियम आयन बैटरी में ज्यादा स्टार्टअप गतिविधियां देखने को मिली हैं।

ग्लोबल टेक्नोलॉजी इंटेलिजेंस फर्म एबीआई रिसर्च (ABI Research) में ईवी सर्विसेज के प्रमुख डायलन खू कहते हैं, लिथियम एनएमसी (निकल मैंगनीज कोबाल्ट) बैटरी में निकल का प्रयोग बढ़ाने और कोबाल्ट का कम करने का ट्रेंड स्पष्ट है। एनएमसी811 (80% निकल, 10% मैंगनीज, 10% कोबाल्ट) बैटरी एनएमसी622 (60% निकल, 20% मैंगनीज, 20% कोबाल्ट) सेल की जगह ले रही हैं। जहां ज्यादा एनर्जी डेन्सिटी की जरूरत नहीं, वहां एनएमसी बैटरी की जगह कोबाल्ट-मुक्त एलएफपी (लिथियम आयरन फॉस्फेट) का प्रयोग बढ़ रहा है।

उन्होंने बताया, “सॉलिड स्टेट बैटरी की भी बहुत चर्चा है, हालांकि अभी इनका इस्तेमाल होने में वर्षों लगेंगे। इस दशक में इनका कॉमर्शियल प्रयोग मुमकिन नहीं लगता। सबसे महत्वपूर्ण बदलाव एलएफपी बैटरी ही हैं। ये सस्ते तो हैं ही, इनमें अहम खनिजों का प्रयोग भी कम होता है। सेल-टू-पैक आर्किटेक्चर जैसी बैटरी असेम्बली के इनोवेशन से भी फर्क पड़ा है। इसमें एलएफपी सेल में एनर्जी डेंसिटी कम होने के बावजूद वाहन की परफॉर्मेंस पर ज्यादा असर नहीं होता।”

‘लैब-टू-मार्केट’ पर ध्यान देना जरूरी

पारंपरिक लिथियम-आयन बैटरी से आगे कई उभरती बैटरी टेक्नोलॉजी हैं, जो गेम-चेंजर हो सकती हैं। उन्हें स्केल-अप करने के लिए काफी आरएंडडी भी चल रही है। सीईईडब्ल्यू के ऋषभ जैन बताते हैं, “कई आईआईटी में नई टेक्नोलॉजी पर काम चल रहा है। चुनौती टेक्नोलॉजी को लैबोरेट्री से निकाल कर कॉमर्शियलाइज करने की है। हमें इस प्रक्रिया को आसान बनाने की जरूरत है। हाल ही फैराडियन (Faradion), टियामैट (Tiamat), सीएटीएल (CATL) और नॉर्थवोल्ट (NorthVolt) ने सोडियम आयन बैटरी में इनोवेशन किए हैं। हालांकि यह अभी लैबोरेट्री तक सीमित है। इसे इस दशक के अंत तक कॉमर्शियलाइज किया जा सकता है। इस दशक के अंत तक बैटरी में कई नई टेक्नोलॉजी देख सकेंगे।”

जैन के अनुसार, एक उल्लेखनीय टेक्नोलॉजी सॉलिड-स्टेट बैटरी है। इसकी एनर्जी डेंसिटी अधिक होने के साथ यह बेहतर सुरक्षा और फास्ट चार्जिंग की सुविधा देती है। एनर्जी डेंसिटी के मामले में लिथियम-सल्फर बैटरी लिथियम-ऑयन बैटरी से बेहतर हैं।

वे बताते हैं, मैग्नीशियम की प्रचुर प्राकृतिक उपलब्धता, लिथियम आयन बैटरी की तुलना में दोगुनी एनर्जी डेंसिटी और बेहतर थर्मल रनअवे (तापमान बढ़ने पर बैटरी की चार्जिंग-डिस्चार्जिंग क्षमता पर असर) के कारण मैग्नीशियम बैटरी भी एक विकल्प है। मेटल-एयर और नायोबियम-टाइटेनियम ऑक्साइड (एनटीओ) बैटरियों पर भी रिसर्च चल रही है। इनकी साइकल कैपेसिटी (कितनी बार चार्ज किया जा सकता है) 20,000 से 30,000 तक हो सकती है। हालांकि, ये अभी पायलट के स्तर पर हैं।

दीया दास कहती हैं, चीन के बाद अब दूसरे देश भी सप्लाई चेन को स्थानीय बनाने की नीतियां ला रहे हैं। अमेरिका इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट (आईआरए) और यूरोपियन यूनियन क्रिटिकल रॉ मटेरियल्स एक्ट (सीआरएमए) के माध्यम से बैटरी सप्लाई चेन का लोकलाइजेशन करने की कोशिश कर रहे हैं। हमारे विश्लेषण के अनुसार 2023 में हल्के वाहनों के लिए 80% लिथियम आयन बैटरी ग्रेटर चीन से आई, वर्ष 2029 में ग्रेटर चीन का हिस्सा 57% रह जाएगा।

जैन एक और महत्वपूर्ण बात कहते हैं, “दूसरे देशों में जिस स्केल पर उत्पादन हो रहा है, फिलहाल भारत के लिए उससे प्रतिस्पर्धा कर पाना मुश्किल होगा। दुनिया में इस समय करीब 1,500 गीगावाट आवर बैटरी उत्पादन क्षमता है, जिसमें भारत में कुछ नहीं है। पीएलआई आने के बाद हम 2030 तक 100-150 गीगावाट आवर क्षमता की उम्मीद कर रहे हैं। उस समय तक वैश्विक क्षमता 5500 गीगावाट पहुंच जाने का अनुमान है।”

बैटरी रीसाइक्लिंग पर ध्यान जरूरी

ऋषभ के मुताबिक, प्रमुख कंपोनेंट्स के साथ एक किलोवाट आवर की बैटरी बनाने में लगभग 48 किलोवाट आवर बिजली लगती है। इसमें माइनिंग और कैथोड, एनोड इत्यादि को बनाने में लगने वाली बिजली शामिल नहीं है। मैन्युफैक्चरिंग एनर्जी इंटेंसिटी के आधार पर, यह आकलन किया गया है कि एक सामान्य टेस्ला कार (80 किलोवाट आवर) 65,000 किलोमीटर चले तो उसके बैटरी उत्पादन में हुआ उत्सर्जन संतुलित हो जाता है।क्रिटिकल मटेरियल की उपलब्धता बढ़ाने के लिए बैटरी रीसाइक्लिंग भी जरूरी है।

डायलन खू के अनुसार, इसमें पूरी दुनिया में बड़े पैमाने पर निवेश किया जा रहा है। इस समय जितनी क्षमता के रीसाइक्लिंग प्रोजेक्ट तैयार हो रहे हैं, वह पुरानी बैटरी की सप्लाई से ज्यादा ही है। इसलिए रीसाइक्लिंग के लिए क्षमता की कोई समस्या नहीं होगी। अमेरिका और यूरोप में इस पर काफी ध्यान दिया जा रहा है, क्योंकि इससे महत्वपूर्ण खनिजों का स्थानीय स्तर पर ही इस्तेमाल किया जा सकेगा।

दीया कहती हैं, पुरानी ईवी बैटरी का जखीरा बढ़ने के साथ इनकी रीसाइक्लिंग जरूरी हो गई है। अगर ईवी बैटरी पूरी तरह खराब नहीं हुई है तो उसका इस्तेमाल एनर्जी स्टोरेज में किया जा सकता है। पुरानी बैटरी की रीसाइक्लिंग करके उसमें लगी धातुओं से सेल बनाए जा सकते हैं। कई देशों ने बैटरी के दोबारा इस्तेमाल और रीसाइक्लिंग के कानून बनाए हैं ताकि इलेक्ट्रॉनिक कचरा कम हो और सस्टेनेबिलिटी को बढ़ावा मिले। कुछ देशों ने बैटरी रीसाइक्लिंग टेक्नोलॉजी में आरएंडडी के लिए फंड उपलब्ध कराने की भी घोषणा की है।

दीया के अनुसार, बैटरी के उचित निस्तारण और रीसाइक्लिंग को बढ़ावा देने में जन-जागरण अभियान महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस तरह की नीति लाने वाले देशों में यूरोपियन यूनियन, जापान और दक्षिण कोरिया शामिल हैं। पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ने के साथ उम्मीद है कि अन्य देश भी सस्टेनेबल बैटरी मैनेजमेंट को अपनाएंगे और उसके नियम कायदे कठोर बनाएंगे।